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लोक सभा चुनाव केवल केंद्रीय सत्ता का ही नहीं बल्कि क्षत्रपों और क्षेत्रीय दलों के भाग्य का भी करेंगे फैसला | सभी बड़े नेताओं की यह परीक्षा |

लोकसभा चुनाव में इस बार कई क्षेत्रीय दल और क्षत्रप करो या मरो की लड़ाई लड़ रहे हैं। नतीजे सिर्फ यह तय नहीं करेंगे कि केंद्र की सत्ता पर कौन काबिज होगा, बल्कि कई क्षत्रपों और क्षेत्रीय दलों के भाग्य का भी फैसला करेंगे। नतीजों से न सिर्फ केंद्र की सियासत के समीकरण बदलेंगे, बल्कि कई राज्यों की सियासत पर भी इसका दूरगामी असर होगा। क्षत्रपों की जीत संभावनाओं के नए द्वार खोलेगी, तो हार सियासी वनवास की ओर ले जाएगी।

दरअसल, चुनाव से पहले ही विरासत की जंग में कई क्षेत्रीय दल टूट चुके हैं, तो कई क्षत्रपों के लिए खुद को साबित करने का आखिरी मौका है। केसीआर, शरद पवार, चिराग पासवान, ओ पन्नीरसेल्वम, ईके पलानीस्वामी और उद्धव ठाकरे के लिए चुनाव जीवन-मरण के प्रश्न की तरह है। खास बात यह है कि सियासत में अपनी प्रासंगिकता बचाए और बनाए रखने के लिए इनके पास जीत के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है।

ईके पलानीस्वामी, अन्नाद्रमुक
ईपीएस के नाम से मशहूर तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री ईके पलानीस्वामी (70) ने 1974 में एमजी रामचंद्रन की पार्टी अन्नाद्रमुक से सियासी पारी शुरू की। जयललिता के निधन के बाद पार्टी में मची विरासत की जंग में वे सीएम की कुर्सी तक तो पहुंच गए, मगर 2021 में डीएमके के हाथों सत्ता गंवाने के बाद पार्टी में अंतर्विरोध को संभाल नहीं पा रहे। वर्तमान में वे विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं। चुनाव से ठीक पहले पार्टी का एनडीए से नाता टूट गया। कई वरिष्ठ नेता पन्नीरसेल्वम के नेतृत्व वाले गुट में चले गए हैं। पूरी ताकत लगाने पर भी पार्टी पीएमके से गठबंधन नहीं कर पाई।

शरद पवार, एनसीपी शरद गुट
राजनीति का चाणक्य कहे जाने वाले शरद पवार (84) पांच दशक के सियासी कॅरिअर के सबसे मुश्किल दौर में हैं। भतीजे अजीत पवार की बगावत से महाराष्ट्र के चार बार सीएम व केंद्र में कई बार मंत्री रह चुके पवार की एनसीपी दो धड़े में बंट गई। पार्टी के साथ चुनाव चिह्न से भी हाथ धोना पड़ा। उनके सामने कई चुनौतियां हैं। विपक्षी गठबंधन के साथ पार्टी के बेहतर प्रदर्शन और अपनी परंपरागत बारामती सीट पर पुत्री सुप्रिया सुले की जीत सुनिश्चित करने की चुनौती है। मुश्किल यह है कि सुप्रिया का मुकाबला अजीत की पत्नी सुनेत्रा पवार से है।  

नवीन पटनायक, बीजद
24 साल से ओडिशा के मुख्यमंत्री और राज्य के निर्विवाद सबसे बड़े नेता नवीन पटनायक (84) की चुनौतियां दोहरी हैं। भाजपा से उनका गठबंधन होते-होते रह गया। ऐसे में एकसाथ हो रहे लोकसभा और विधानसभा चुनाव में उन्हें फिर से खुद को साबित करने की चुनौती है। जीत मिलने पर वे पार्टी के लिए मनपसंद उत्तराधिकारी तय कर सकेंगे।  मुश्किल यह है, भर्तृहरि महताब समेत दो वरिष्ठ सांसद बीजद से नाता तोड़ चुके हैं। ऐसे में चुनाव के नतीजे बीजद के साथ नवीन पटनायक के कद पर भी असर डालेंगे।

नीतीश कुमार, जदयू
बिहार में सबसे लंबे समय तक सीएम रहने का कीर्तिमान रचने वाले नीतीश कुमार (73) बार-बार पाला बदलने के कारण चर्चा में रहते हैं। विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ लड़े, फिर राजद का दामन थाम लिया। चुनाव से ऐन पहले फिर भाजपा के साथ हो लिए। इस बार नीतीश की चुनौती कुछ अलग है। विधानसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन न कर पाने की भरपाई में जुटे नीतीश के लिए यह चुनाव अग्निपरीक्षा है। पुराना प्रदर्शन नहीं दोहराया, तो पार्टी में बगावत के सुर तेज हो सकते हैं। हालांकि बड़ी जीत से फिर साबित होगा कि राज्य में उनसे बड़ा कोई सियासी खिलाड़ी नहीं है।

तेजस्वी यादव, राजद
तेजस्वी यादव (34) बिहार की राजनीति के युवा और मुखर चेहरा हैं। पहली बार लोकसभा चुनाव की रणनीति का पूरा जिम्मा उन्हीं के पास है। बीते विधानसभा चुनाव में एनडीए को कड़ी टक्कर देकर चर्चा में आए तेजस्वी राज्य में विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व भी कर रहे हैं। राजद सुप्रीमो पिता लालू प्रसाद यादव सलाहकार की भूमिका में हैं। राजनीति में मोदी-शाह युग की शुरुआत के बाद से ही राजद की भूमिका सीमित हो गई है। पिछले आम चुनाव में पार्टी खाता भी नहीं खोल पाई थी।

पन्नीरसेल्वम, अन्नाद्रमुक (डब्ल्यूआरआरसी)
दिवंगत सीएम जयललिता के खासमखास होने के कारण ओ पन्नीरसेल्वम (73 वर्ष) को तीन बार तमिलनाडु का सीएम बनने का अवसर मिला। वैधानिक कारणों से जब दो बार जयललिता सीएम बनने से चूकीं, तो अपनी विरासत पन्नीरसेल्वम को ही सौंपी। उनके जीवित रहते पनीरसेल्वम की पार्टी में निर्विवाद रूप से नंबर दो की हैसियत रही। जयललिता के निधन के बाद तीसरी बार सीएम बनने का मौका मिला, मगर पार्टी में अंतर्विरोध इतना बढ़ा कि पद छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। निष्कासन का दंश भी झेलना पड़ा। वे अन्नाद्रमुक वर्कर्स राइट्स रिट्रीवल कमेटी (डब्ल्यूआरआरसी) बनाकर भाजपा-पीएमके के साथ चुनाव में उतरे हैं। खुद रामनाथपुरम से उम्मीदवार हैं।

चिराग पासवान, लोजपा (रामविलास)
अपने पिता दिवंगत रामविलास पासवान की विरासत की जंग में हार के बाद जीत हासिल कर चिराग पासवान (41) चर्चा में हैं। पुरानी पार्टी के हिस्से की सभी सीटें चाचा पशुपति पारस से झटक कर चिराग ने रणनीति का लोहा मनवाया है। कभी पिता को एनडीए से जोड़ने में अहम भूमिका निभाने वाले मोदी के हनुमान की असली चुनौती अब शुरू हुई है। अगर चुनाव में उनके नेतृत्व में पार्टी बेहतर प्रदर्शन से चूकी, तो हाशिये पर भेजे गए पशुपति को नई संजीवनी मिल सकती है।

के चंद्रशेखर राव बीआरएस
अलग तेलंगाना राज्य आंदोलन का प्रमुख चेहरा रहे के चंद्रशेखर राव (71 वर्ष) ने तेलुगु देशम के साथ सियासी पारी की शुरुआत की। बाद में तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) का गठन किया। लगातार दो विधानसभा चुनाव जीतने के बाद राष्ट्रीय राजनीति की महत्वाकांक्षा में पार्टी का नाम भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) कर दिया। हालांकि बीते साल विधानसभा चुनाव हारते ही बाजी पलट गई।

वर्तमान में केसीआर अपने राज्य में कांग्रेस और भाजपा के दो पाटों के बीच फंसे दिख रहे हैं। उनका सामना कांग्रेस के नए चेहरे और सीएम रेवंत रेड्डी से है, तो दूसरी ओर भाजपा एक-एक कर उनकी पार्टी के नेताओं को तोड़ रही है। केसीआर की पुत्री के कविता शराब घोटाले में जेल में हैं। ऐसे में केसीआर लोकसभा चुनाव में फिसले, तो उनके सियासी भविष्य पर ग्रहण लगना तय है।

उद्धव ठाकरे, शिवसेना यूबीटी
शरद पवार की तरह उद्धव ठाकरे (63 वर्ष)के सामने भी विरासत बचाने की चुनौती है। भाजपा से संबंध तोड़ने और एनसीपी-कांग्रेस से हाथ मिलाने की कीमत उन्हें पार्टी में टूट और बाला साहब ठाकरे की विरासत पर जंग के रूप में चुकानी पड़ रही है। पवार की तरह उद्धव के पास भी अब न तो पुरानी शिवसेना है और न ही पुराना चुनाव निशान। एकनाथ शिंदे ने उद्धव को लगातार झटके दिए हैं। उद्धव की जगह सीएम बने और अब एनडीए के साथ चुनावी मैदान में हैं। जाहिर तौर पर लोकसभा चुनाव के नतीजे न सिर्फ असली-नकली शिवसेना का जवाब देंगे, बल्कि यह भी तय होगा कि बाला साहब की विरासत अब किसके साथ है।

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