फिल्म समीक्षा – ‘द कश्मीर फाइल्स’
द्वारा – मीना कौशल
कच्चा बादाम अब पक चुका है हालांकि कच्चे बादाम से कुछ लोग अभी भी नहीं पके पर आजकल जिसकी चर्चा की आंधी में कोरोना, चुनाव, यूक्रेन युद्ध सब उड़ गए हैं वह है एक फिल्म, कश्मीर फाइल्स। घर दफ्तर, चौक चौबारों में, मुहल्लों बाजारों में, मीडिया अखबारों में हर तरफ इसी फिल्म की चर्चा है।
आज इस फिल्म को देखने का संयोग बना। पहले सोचा था कि हर फिल्म की तरह इसकी भी समीक्षा लिखी जाए। विवेक अग्निहोत्री द्वारा बनाई गई इस फिल्म को फिल्म के बजाय एक वृत्तचित्र या डॉक्यूमेंट्री फिल्म कहना चाहिए। 1989 में हुए कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और विस्थापन पर बनाई गई इस फिल्म की अच्छी बात यह है की यह आपको कई विचारधाराएं एक साथ दिखाती है। यह कश्मीरी पंडितों के अतिरिक्त उदारवादी मुस्लिम,दलितों, सिखों, बौद्धों आदि पर हुए अत्याचारों की ओर भी इशारा करती है। इस दर्दनाक और वीभत्स नरसंहार और विस्थापन को रोकने में राजनेता ,अफसर मीडिया ,फौज सब बौने साबित होते हैं ।कहना तो चाहिए कि स्वार्थवश नेता, मीडिया और कथित बुद्धिजीवी (प्रोफेसर, लेखक, सेलेब्रिटी)आदि इस संहाराग्नि में आहुति डालते हैं।
आतंकवादी जिनका मजहब इतना कमजोर होता है की उसे बचाने के लिए हिंसा का सहारा लेना पड़ता है। जो मरकर जन्नत पाने के लिए जीतेजी सबके लिए धरती को जहन्नुम बनाते हैं। उन्हें याद रखना चाहिए की लाशों का कोई मजहब नहीं होता।
फिल्म के अंत में भारत माता की जय जयकार ने एक सुखद अनुभूति के साथ-साथ किसी अनहोनी का डर भी पैदा किया। लेना चाहें तो फिल्म का संदेश एकदम स्पष्ट है सच वह नहीं जो हम में सुनाया, दिखाया या पढ़ाया गया सच वह भी है जो हमसे छुपाया गया। छात्र वर्ग को बिना किसी राजनीति से जुड़े शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए क्योंकि केवल शिक्षा ही उनका भविष्य बदल सकती है। हॉल से निकलते समय दर्शकों का निशब्द और मायूस होना यह दर्शाता है की कुछ तो है इस फिल्म में जो उनके दिल चुभ गया है।