अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल के हामिद करज़ई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पिछले कई दिनों से एक दुखद अराजकता फैली हुई है.
इसी बीच तभी काबुल में दो स्तरों पर राजनीतिक वार्ताओं का दौर जारी है. एक दूसरे से जुड़ी हुई ये वार्ताएं आने वाले दिनों में अफ़ग़ानिस्तान के तात्कालिक भविष्य का फैसला कर सकती है.
इनमें से एक वार्ता अफ़ग़ानिस्तान में नयी राजनीतिक व्यवस्था खड़ी करने पर केंद्रित है. वहीं, दूसरी वार्ता तालिबानी नेतृत्व वाली सरकार को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने से जुड़ी हुई है.
इंडियन एक्सप्रेस में छपे लेख में सी राजामोहन बताते हैं, इस समय पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी समर्थन वाली सरकार को उखाड़ फेंकने और भारत को इस क्षेत्र से बाहर करने में अपनी जीत का जश्न मना रहा है.
ऐसे में सवाल उठता है कि भारत इस मौके पर क्या कदम उठा सकता है.
राजामोहन लिखते हैं कि “भारत सरकार इस समय एक कदम पीछे खींचकर ये संकेत दे सकती है कि वह इंतज़ार करने की स्थिति में है. इसकी एक वजह ये है कि पाकिस्तानी सेना इस समय अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के प्रभुत्व वाली नयी राजनीतिक व्यवस्था स्थापित करने से बस कुछ दूर है. इसके बाद पाकिस्तान समर्थित व्यवस्था के लिए अंतरराष्ट्रीय वैधता हासिल करना और उसके भविष्य सुरक्षित करना एक चुनौती है. इनमें से एक भी काम आसान नहीं है. इन मामलों में पाकिस्तान का अपना अनुभव भी नुकसान की ओर ही इशारा करता है.”
सोचिए ज़रा कि पाकिस्तानी सेना ने आख़िरी बार जब अफ़ग़ानिस्तान में जीत का जश्न मनाया था तो क्या हुआ था. साल 1989 में सोवियत सेनाएं अफ़ग़ानिस्तान से चली गयीं तो सोवियत संघ के समर्थन वाली नजीबुल्लाह सरकार ने अपने पतन से पहले तीन साल तक पाकिस्तानी समर्थित मुजाहिद्दीन आक्रमण का सामना किया.
लेकिन इसके बाद भी पाकिस्तान को तालिबान के ज़रिए अफ़ग़ानिस्तान पर ठीक-ठाक नियंत्रण स्थापित करने में पाँच साल का वक़्त लगा.
लेकिन इससे पहले कि तालिबान और पाकिस्तान अपनी जीत से दीर्घकालिक भूराजनीतिक फायदे उठा पाते, 9/11 हमले के बाद पूरी दुनिया अफ़ग़ानिस्तान पर टूट पड़ी.
साल 2001 ख़त्म होते – होते तालिबान सरकार उसी तरह ख़त्म हो गयी जो हाल इस महीने अशरफ़ ग़नी सरकार का हुआ है. इस बात में दो राय नहीं है कि पाकिस्तानी सेना पिछले दशकों से धैर्य के साथ तालिबान के समर्थन और उसे सत्ता में वापस लाने पर खुद को शाबाशी दे सकती है.
लेकिन सवाल ये है कि यह अफ़ग़ानिस्तान में दो अधूरे कामों, एक विश्वसनीय सरकार का गठन और उसके लिए अंतरराष्ट्रीय वैधता दिलाने, को कैसे निपटाएगी.
राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी के काबुल से भागने के एक हफ़्ते बाद भी काबुल में, एक समावेशी और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य सरकार तो नहीं, लेकिन कोई सरकार ही नहीं है.
पाकिस्तान के सामने इस समय जो चुनौतियां हैं उनका ज़िक्र करते हुए राजामोहन लिखते हैं, “इससे पहले कि पाकिस्तानी सेना तालिबान को अन्य समूहों के साथ सत्ता बांटने के लिए तैयार कर पाए, उससे पहले उसे तालिबान के अलग – अलग गुटों में एक दूसरे को स्वीकार करने एवं जगह देने के लिए तैयार करना होगा.
किसी भी जीतने वाले गठबंधन के लिए सबसे कठिन काम सत्ता एवं युद्ध की लूट को बांटना सबसे मुश्किल काम होता है. पश्तून जनजातियों के साथ ये काम और भी मुश्किल होने वाला है क्योंकि वे आपस में ही बंटी हुई हैं.
इसके बाद अगली समस्या ग़ैर-तालिबानी तत्वों को नयी सरकार में शामिल करना है. इस दिशा में तालिबान की ओर से कुछ कदम उठाए जा रहे हैं लेकिन अभी तक उनसे कोई परिणाम नहीं निकला है.
एक चुनौती ये भी है कि तालिबान अभी तक अपने नेक इरादों को लेकर जनता को विश्वास में नहीं ले पाई है. इस समय भी हज़ारों अफ़ग़ानी लोग तालिबानी शासन में ज़िंदगी बसर करने से बचने के लिए भागना चाह रहे हैं. कुछ विरोधी तत्व सैन्य स्तर पर तालिबान का सामना करने के लिए एकजुट हो रहे हैं.”
तालिबान के संदर्भ में ये बात कहना भी ज़रूरी है कि समावेशी सरकार की बात करना आसान है.
और अगर कभी इस पर अमल होता भी है तो उसमें बहुत समय लगेगा. लेकिन तालिबान और पाकिस्तान के पास बहुत कम समय है. वे जल्द ही पहचान और वैधता हासिल करना चाहते हैं. और ये स्थिति हमें अफ़ग़ान समस्या के अंतरराष्ट्रीय आयाम से अवगत कराती है.
अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने तालिबान के नेतृत्व वाली सरकार को मान्यता देने के लिए कुछ व्यापक शर्तें तय की हैं.
इसमें अफ़ग़ानिस्तान में एक समावेशी सरकार के अलावा, मानवाधिकारों, विशेष रूप से महिलाओं के अधिकारों के प्रति सम्मान, अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के प्रति समर्थन समाप्त करना और अफीम उत्पादन बंद होना शामिल है. तालिबान नेताओं ने इन मुद्दों पर सारी सही बातें कही हैं, लेकिन उनके वादों और अमलीकरण में जो अंतर है, वो काफ़ी बड़ा है.
राजामोहन लिखते हैं, “अंतरराष्ट्रीय समुदाय इन माँगों को लेकर फिलहाल एकजुट नज़र आ रहा है लेकिन पाकिस्तान अपने पारंपरिक सहयोगियों जैसे चीन और तुर्की समेत नये सहयोगियों जैसे रूस के साथ मिलकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस मौजूदा आम राय को तोड़ने की कोशिश करेगा.
हालाँकि, पाकिस्तान और तालिबान दोनों जानते हैं कि चीन और रूस का समर्थन अच्छा है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन वह पर्याप्त नहीं है.”
राजनीतिक वैधता हासिल करने के साथ-साथ सतत अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सहायता के लिए उन्हें अमेरिका और उसके सहयोगियों का समर्थन लेना पड़ेगा. अमेरिका ने अफगानिस्तान की लगभग 10 अरब डॉलर की वित्तीय संपत्ति को पहले ही फ्रीज कर दिया है और कुछ पश्चिमी बैंकों ने अफगानिस्तान को जाने वाले आर्थिक ट्रांजेक्शन पर प्रतिबंध लगाए हैं. ऐसे में ये दबाव अफगानिस्तान में मौजूदा गंभीर आर्थिक स्थिति को और अधिक असहनीय बना देते हैं.
इसके साथ ही पश्चिमी देशों को फिलहाल काबुल से अपने लोगों को बाहर निकालना है. और कुछ समय बाद मानवीय सहायता भी उपलब्ध करवानी है जिसे लेकर पश्चिमी देशों में मांग की जा रही है. ऐसे में पाकिस्तान की महत्ता आने वाले दिनों में कम होने नहीं जा रही है.
एक लंबे समय तक पाकिस्तान को गुप्त ढंग से समर्थन देने के बाद पाकिस्तान ने आख़िरकार तालिबान को अपने राजनीतिक कंधों पर जगह दे दी है. पाकिस्तानी सेना दुनिया से कह रही है कि तालिबान बदल गया है. और अगर पाकिस्तान इस ख़तरनाक खेल में सफल हुआ तो उसे इसका फायदा भी मिल सकता है. लेकिन असफल होने पर ख़तरे भी बड़े हैं.
सी राजामोहन कहते हैं, “आम राय से इतर, भारत कभी भी अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान का रणनीतिक प्रतिद्वंदी नहीं रहा है. और अफ़ग़ानिस्तान और भारत के बीच सीधे भौगोलिक जुड़ाव की कमी ने ये सुनिश्चित किया है. इसके साथ ही भूगोल एक बड़ा कारण है जिसकी वजह से पाकिस्तानी सेना और दिल्ली अफ़ग़ानिस्तान के प्रति अलग – अलग नीतियों का पालन करती है.”
अफ़ग़ानिस्तान को लेकर दोनों देशों की नीतियों में अंतर को स्पष्ट करते हुए सी राजामोहन बताते हैं कि दोनों देशों की नीतियां 19वीं शताब्दी के ब्रिटिश राज से निकलती है. पाकिस्तान सरकार फॉरवर्ड पॉलिसी स्कूल के तहत अफ़ग़ानिस्तान में रणनीतिक गहराई चाहता है. इस नीति को मानने वाले सिंधू के आगे के क्षेत्र को नियंत्रित करना चाहते हैं. वहीं, भारत इसकी प्रतिद्वंदी नीति “मास्टर्ली इनएक्टिविटी” का समर्थक है. जो कि सिंधू के परे स्थित ख़तरनाक इलाकों को लेकर एक विवेकपूर्ण नीति है.
वह कहते हैं, “ये कोई निष्क्रिय रणनीति नहीं है. यह अफगानिस्तान को नियंत्रित करने की कोशिश की निरर्थकता को स्वीकार करती है. यह दुर्लभ संसाधनों को संरक्षित करने और उन्हें सबसे उपयुक्त समय और स्थान पर तैनात करने की मांग करती है. यह अफगानिस्तान के भीतर कई अंतर्विरोधों का मुकाबला करने और सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष दृष्टिकोणों पर ध्यान केंद्रित करने के बारे में है.
ऐसे में पाकिस्तान की फॉरवर्ड पॉलिसी नीति सहयोगी सरकार के नाम पर प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश करती है. वहीं, दिल्ली की नीति काबुल को पाक सेना के प्रभाव से मुक्त करके स्वायत्त बनाने एवं आर्थिक आधुनिकीकरण करने की कोशिश करती है.
ऐसे में अगर पाकिस्तान द्वारा प्रभुत्व हासिल करने की कोशिश अफ़ग़ानिस्तान को नाराज़ करती है तो ऐसे में अफ़ग़ान संप्रभुता को दिल्ली का समर्थन भारत को हमेशा स्वागत योग्य बनाएगा.
भारत जिन अफ़ग़ान मूल्यों जैसे राष्ट्रवाद, संप्रभुता और स्वायत्तता का समर्थन करता है, वे काबुल में रहेंगे, चाहें सरकार कोई भी हो.”
राजामोहन कहते हैं कि अगर भारत रणनीतिक धैर्य और अफ़ग़ानी लोगों के प्रति राजनीतिक सहानुभूति के साथ लगातार संपर्क बनाए रखेगा तो काबुल के आंतरिक और बाह्य विकास में भारत सरकार प्रासंगिक बनी रहेगी.
साल 1990 में पाकिस्तान और तालिबान को काबुल का भविष्य तय करने में खुली छूट मिली थी. दुनिया ने सोवियत सेनाओं की वापसी के साथ ही उनकी ओर से मुंह मोड़ लिया था. लेकिन वे जल्द ही और बुरी तरह हार गए. इस बार भी दुनिया तालिबानी शासन में अफ़ग़ानिस्तान की आंतरिक और बाह्य नीतियों को लेकर बेहद चिंतित है. ऐसे में ये स्थिति भारत सरकार को 1990 के मुक़ाबले मौजूदा समस्या का सामना करने के लिए बेहतर स्थितियां प्रदान करती है.”
कैसे मोनेटाइज़ होंगी 6 लाख करोड़ की सरकारी संपत्तियां?
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन को लॉन्च किया है.
हिंदी दैनिक नवभारत टाइम्स में छपी ख़बर के मुताबिक़, उन्होंने साफ किया कि सरकार केवल अंडर-यूटिलाइज्ड एसेट्स को ही बेचेगी. इसका हक सरकार के पास ही रहेगा और प्राइवेट सेक्टर के पार्टनर्स को तय समय के बाद अनिवार्य रूप से वापस करना होगा.
उन्होंने कहा कि हम कोई जमीन नहीं बेच रहे हैं. नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन में ब्राउनफील्ड एसेट्स की बात कही गई है जिन्हें बेहतर ढंग से मोनिटाइज करने की जरूरत है.
निजी भागीदारी से हम इन्हें बेहतर ढंग से मोनीटाइज कर रहे हैं. मोनेटाइजेशन से मिलने वाले संसाधनों को इन्फ्रास्ट्रक्चर बिल्डिंग में निवेश किया जाएगा.
पंजाब के बाद छत्तीसगढ़ कांग्रेस में घमासान
कांग्रेस पार्टी ने इस समय केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला हुआ है. लेकिन आंतरिक स्तर पर रह – रहकर होते घमासान पार्टी को परेशान कर रहे हैं.
पंजाब में अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के बीच कई हफ़्तों तक चले घमासान के बाद अब छत्तीसगढ़ कांग्रेस में स्थिति ख़राब होती दिख रही है.
हिंदी अख़बार अमर उजाला में छपी ख़बर के मुताबिक़, कांग्रेस नेतृत्व जिस छत्तीसगढ़ को लेकर सबसे ज्यादा आश्वस्त है, अब वहां भी सब ठीकठाक नहीं है. राज्य में महीनों से वहां के नेताओं के बीच चला आ रहा घमासान समाप्त करने के लिए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और वरिष्ठ मंत्री टीएस सिंह देव को दिल्ली बुलाया गया है.
छत्तीसगढ़ में सरकार गठन के दौरान जो पेंच फंसा था, अब वह बड़ा रूप ले चुका है. दरअसल बघेल को मुख्यमंत्री बनाने के समय से ही वरिष्ठ मंत्री टीएस सिंह देव सरकार के ढाई साल पूरे होने का इंतजार कर रहे थे, ताकि सत्ता का हस्तांतरण हो सके.
देव सत्ता के बंटवारे के फॉर्मूले का दावा कर रहे हैं, जबकि बघेल ऐसे किसी फार्मूले से इनकार कर रहे हैं. देव इससे नाराज हैं. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के पास 90 में से 70 सीट हैं और अधिकतर विधायक बघेल से संतुष्ट हैं. बीते 17 जून को सरकार के ढाई साल पूरे होने के बाद से ही सीएम से नाराज विधायक नेतृत्व परिवर्तन को हवा दे रहे हैं.
छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री पद के लिए ढाई-ढाई वर्ष के फॉर्मूले की चर्चा के बीच मुख्यमंत्री भूपेश बघेल सोमवार शाम कांग्रेस नेता राहुल गांधी से मुलाकात करने के लिए दिल्ली रवाना हो गए. वहीं, राज्य के स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंह देव भी दिल्ली में ही मौजूद हैं.